भूमि सुधार


भूमि सुधार का तात्पर्य प्राय: अमीरों से भूमि लेकर गरीबों को देने या बाँटने को कहते हैं । विस्तृत रूप से भूमि सुधार में भूमि स्वामित्व (Land Ownership), भूमि ऑपरेशन (Land Operation), भूमि को पट्‌टे पर उठाना (Leasing), भूमि की खरीद-व-फरोख्त तथा भूमि-विरासत अर्थात उत्तराधिकार सम्मिलित हैं ।

भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां भूमि सीमित है और भूमि अभाव है तथा जहाँ अधिकतर ग्रामीण जनता गरीबी रेखा से नीचे (Below Poverty Line) रहती है वहाँ आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से भूमि सुधार अनिवार्य हो जाता है । भारत में भूमि सुधार का मुख्य उद्देश्य भूमि स्वामित्व के प्रतिरूप में परिवर्तन करके ग्रामीण समाज की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में परिवर्तन लाना है ।

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इसी कारण स्वतंत्रता के पश्चात भूमि सुधार को प्राथमिकता दी गई थी । भूमि सुधार सामाजिक समानता (Equity) एवं सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों पर आधारित है । इसके द्वारा कृषि भूमि का पुन: वितरण भूमि-स्वामित्व में परिवर्तन खेतों की चकबंदी तथा भूमि की मालगुजारी (लगान) इत्यादि में परिवर्तन एवं सुधार करना है ।

1. मध्यस्थ (Intermediary) का उन्मूलन:

ब्रिटिश राज्य के दौरान कृषि भूमि प्रबंधन के लिये जमींदारी, महालवाड़ी एवं रयैतवाड़ी प्रथा आरम्भ की थी, जिससे खेती करने वालों का शोषण होता था और जमींदार वर्ग उनके खून-पसीने से उगाई गई फसलों से लाभ उठाकर भोग विलास और आराम का जीवन व्यतीत करते थे । स्वतन्त्रता के फौरन बाद इसलिये मध्यस्थ वर्ग के उन्मूलन को प्राथमिकता दी गई थी ।

2. जमींदारी तन्त्र (Zamindari System):

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भारत में लार्ड कॉर्नवालिस (Lord Cornwallis) ने 1793 में जमींदारी तन्त्र बंगाल प्रति में आरम्भ किया था । इस प्रथा के अंतर्गत कृषि भूमि पर कुछ लोगों का अधिकार होता था जिनको जमींदार कहा जाता था । सरकार के खुजाने में भूमि की मालगुजारी (Revenues) यही जमींदार जमा करते थे । इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कंपनी एक ऐसा वर्ग पैदा कर दिया था जो ब्रिटिश सरकार का वफादार बना रहे ।

जमींदारी बस्तियों को दो वर्गों में विभाजित किया गया:

(i) स्थाई बस्तियाँ, जिनकी मालगुजारी (लगान) स्थिर अथवा निश्चित (Fixed) था, तथा;

(ii) अस्थाई बस्तियाँ जिनकी मालगुजारी (लगान) प्रत्येक 20 से 40 वर्ष के बीच संशोधित की जाती थी । इस प्रकार ब्रिटिश सरकार तथा कृषि भूमि जोतने वाले के बीच में एक मध्यस्थ वर्ग जमींदार के रूप में उत्पन्न हो गया ।

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जमींदार वर्ग समाज में एक परजीवी (Parasite) का रूप धारण करके खेती करने वाले गरीब किसानों का बुरी तरह से शोषण करने लगा । जमींदार किसानों से भारी मालगुजारी वसूल करते जुल्म अत्याचार ढ़ाते तथा स्वयं भोग विलास का जीवन व्यतीत करते थे । इन हालात को ध्यान में रखते हुये स्वतन्त्रता के बाद जमींदारी उन्मूलन कानून पास किया गया ।

i) महालवाड़ी व्यवस्था (Mahalwari System):

महालवाड़ी व्यवस्था (Mahalwari System) में भूमि का स्वामित्व गाँव के समुदायों (Communities) के पास होता था । इस प्रकार पूरा गांव सरकार को मालगुजारी (Revenues) देने के लिये जिम्मेदार होता था । महालवाड़ी व्यवस्था को आगरा-अवध प्रान्त में लागू किया गया था, बाद में पंजाब प्रान्त में भी लागू कर दिया गया ।

कृषि भूमि की इस प्रणाली के अन्तर्गत कुछ शिक्षित एवं थोड़े पढ़े-लिखे लोगों को लम्बरदार (Lumberdar) बना दिया जाता । लम्बरदार अपने विस्तृत परिवार के लोगों से मालगुजारी (Revenue) एकत्रित करके सरकारी खजाने में जमा कराने का काम करता । इस सेवा में लम्बरदार को एकत्रित की गई मालगुजारी धन राशि का पाँच प्रतिशत कमीशन के तौर पर दिया जाता था ।

(ii) रैयतवाड़ी व्यवस्था (Royatwari System):

रैयतवाडी व्यवस्था (Royatwari System) को 1892 में मद्रास प्रान्त में लागू किया गया था । बाद में यह प्रणाली बम्बई, बराड तथा मध्य भारत (मध्य प्रदेश) में लागू की गई थी । रैयतवाडी व्यवस्था हिन्दू संयुक्त परिवार की देन माना जाता है । रैयतवाड़ी व्यवस्था में प्रत्येक किसान अपनी कृषि भूमि की मालगुजारी सरकार को देने के लिये स्वयं जिम्मेदार होता था ।

जब तक कोई किसान सरकार को लगान (Revenue) अदा करता रहता उसको बेदखल नहीं किया जा सकता था । रैयत को कृषि भूमि पर पूर्ण अधिकार प्राप्त होते थे तथा वह अपनी कृषि भूमि के किसी भाग को शिकमी देना या उप-किरायेदारी (Sublets) करने का अधिकार भी रखता था ।

स्वतंत्रता के पश्चात् जमींदारों के अत्याचारों से मध्यस्थ वर्ग (Intermediaries) के उन्मूलन के लिये कानून बनाये गये । सबसे पहले 1942 में मद्रास में तथा 1949-50 में बंबई में, 1951 में हैदराबाद, बिहार, मध्य प्रदेश तथा असम में 1952 में उड़ीसा, पंजाब, सौराष्ट्र तथा राजस्थान 1954 में कर्नाटक, प. बंगाल एवं दिल्ली में जमींदारी उन्मूलन की गई ।

जमींदारी उन्मूलन से तीस लाख काश्तकारों (Tenants) तथा बटाई किसानों (Share Croppers) को भूमिधारी अर्थात् कृषि भूमि पर मालिकाना अधिकार प्राप्त हुये और इस प्रकार पूरे देश में 25 लाख हेक्टयर भूमि पर काश्तकारों को भूमिधारी के अधिकार प्राप्त हो गये । जमींदारी उन्मूलन से 260,000 जमींदारों का खात्मा हुआ ।

3. भूस्वामी सुधार (Tenancy Reforms):

जमींदारी खात्मा एवं रैयतवाडी (Toyatwari) तन्त्र के अंतर्गत कृषि भूमि प्राय: किसानों को पट्‌टे पर या किराये पर दो जाती थी । छोटे या सीमांत किसान कृषि भूमि जमीदारों से पट्‌टे पर लेते थे ।

पट्‌टे या किराये पर कृषि भूमि लेने वाले काश्तकार निम्न तीन प्रकार के होते थे:

(i) स्थाई काश्तकार (Permanent Tenants):

स्थाई काश्तकार भूमि के वास्तविक स्वामी माने जाते थे तथा उनके देहान्त के पश्चात भूमि/जमीन उनकी सन्तान (बेटों) को मिलती थी ।

(ii) अस्थाई काश्तकार (Tenants at will on Temporary Tenants):

इन काश्तकारों को जमींदार अपनी इच्छानुसार बदलता रहता था, तथा उनकी संतान का कृषि हेतु पट्‌टे पर ली गई जमीन पर कोई अधिकार नहीं होता था ।

(iii) शिकमी काश्तकार (Sub-Tenants):

कुछ स्थाई काश्तकार अपनी पट्‌टे पर ली गई भूमि को अपने से छोटे किसानों को किराए या पट्‌टे पर दे देते थे, जिनको शिकमी (Subtenants) कहा जाता था ।

जमींदार अस्थाई एवं शिकमी किसानों के लगान को स्वेच्छानुसार बढ़ाता रहता था उनसे बेगार लेता (Begar or Free Services) लेता था और उनका भिन्न-भिन्न प्रकार से शोषण करता रहता था । भूस्वामी सुधार के अंतर्गत काश्तकारों को भूमिधर बनाया गया ।

4. लगान अथवा मालगुजारी पद्धति में सुधार (Regulation of Rent):

वर्ष 1951 से पहले कृषि भूमि का लगान अथवा मालगुजारी कृषि उत्पादन का 50 प्रतिशत निर्धारित थी । प्रथम एवं दूसरी पंचवर्षीय योजना में इसको घटा कर 20 या 25 प्रतिशत कर दिया गया । चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान कृषि भूमि लगान का पूर्ण रूप से उन्मूलन कर दिया गया ।

5. कृषि भूमि अधिकतम सीमा सुधार (Land Ceiling):

भूमि सुधार के अंतर्गत प्रत्येक किसान की अधिकतम कृषि भूमि की सीमा का भी निर्धारण किया गया । सीलिंग अधिनियम (Ceiling Act) वर्ष 1972 में लागू किया गया । प्रत्येक राज्य में सिंचित एवं बारानी (असिंचित भूमि) कृषि भूमि निर्धारित की गई ।

यह सीमा निम्न प्रकार थी:

(i) एक वर्ष में दो फसलें उगाने वाली सिंचित भूमि 4.05 हेक्टयर से लेकर 7.28 हेक्टयर,

(ii) घटिया में 21.58 हेक्टयर से कम,

(iii) सीमा निर्धारण, बाग-बागीचों तथा नकदी फसलों (Plantation Crops), चाय के बागीचों इत्यादि पर लागू नहीं होगी ।

(iv) धार्मिक स्थलों की परोपकारी भूमि (Charitable) को राज्य सरकारें सीलिंग (Ceiling) से बाहर रख सकती हैं ।

(v) सीलिंग से प्राप्त की गई भूमि का बंटवारा करते समय भूमिहर मजदूरों, अनुसूचित जातियों एवं जन-जातियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।

(vi) सीलिंग द्वारा प्राप्त की गई भूमि का मुआवजा/क्षतिपूर्ति (Compensation) भूमि के बाजारी मूल्य से कम होना चाहिये,

(vii) मुआवजा, किश्तों में अदा किया जाना चाहिये ।

6. भूमि रिकार्ड (Land Records):

कृषि भूमि सुधार के लिये अनिवार्य है कि रिकॉर्ड आधुनिक ढंग से तैयार किए जाएं । सातवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि भूमि के वैज्ञानिक सर्वेक्षण (Scientific Survey) पर बल दिया गया था जिसमें कम्प्यूटर के द्वारा रिकॉर्ड आंकडे एवं खतौनी तैयार करना भी सम्मिलित था ।

भारत में भूमि सुधार का मूल्यांकन (An Appraisal of Land Reforms in India):

यद्यपि भारत में बड़े उत्साह एवं जोशोखरोश के साथ भूमि सुधार की प्रक्रिया आरम्भ की गई थी लेकिन कुछ समय बाद इस उत्साह में कमी देखने को मिली ।

भूमि सुधार में संतोषजनक प्रगति न होने के मुख्य कारण निम्न हैं:

1. विधि/कानून निर्माण में कमी (Faults in Legislation):

भूमि सुधार कानून में कुछ निहित कमजोरियाँ हैं । इन कमजोरियों में निजी काश्त (Personal Cultivation) किसानों के द्वारा सीमा से अधिक भूमि का रखना बड़े किसानों के द्वारा अपने रिश्तेदारों के नाम पर कृषि भूमि का बैनामा (Transfer) करना सम्मिलित हैं । इस प्रकार बड़े किसान सीमा निर्धारण से बच जाते हैं ।

2. राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी (Lack of Political Will):

भूमि सुधार कानून लागू करने के लिये राजनैतिक इच्छा शक्ति अनिवार्य है, जिसकी कमी के कारण भूमि सुधार केवल एक नारा (Slogan) बन कर रह गया है ।

3. नौकरशाही रुकावटें (Bureaucratic Obstacles):

भारतीय नौकरशाही अपने कर्तव्य निभाने में कमी करते हैं और कई बार नेताओं के प्रभाव में आ जाते हैं जिसके कारण कानूनों का सही ढंग से पालन नहीं हो पाता ।

4. समन्वयन की कमी (Lack of Co-Ordination):

भूमि सुधार लागू करने वाली बहुत-सी एंजसियों (Agencies) में तालमेल न होने के कारण भी कानून लागू करने में देरी होती है ।

5. भूमि सुधार कानूनों में विविधता (Variation in Laws Related in Land Reforms):

देश के विभिन्न राज्यों में भूमि सुधार के कानूनों में विभिन्नता पाई जाती है, जिसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर उनको लागू करने में कठिनाई आती है ।

6. मुकदमेबाजी (Litigation):

कानूनी कमियों के कारण लोगों में मुकदमेबाजी में भारी वृद्धि आई है । मुकदमों के चलते हुये भूमि सुधार कानून लागू करने में देरी होती है ।

7. भूमि रिकॉर्ड में कमी (Incomplete Land Records):

भारत सरकार द्वारा तैयार किये गये रिकॉर्ड (खतौनी आदि) अधूरे होते हैं जिसके कारण भूमि के सही मालिक का पता लगाने में कठिनाई आती है तथा भूमि सुधार कानून लागू करने में देरी होती है ।

सुझाव (Suggestions):

यदि निम्न सुझावों पर ध्यान देकर काम किया जाय तो भूमि सुधार प्रभावशाली ढंग से लागू किया जा सकता है:

1. प्रभावशाली ढंग से भूमि सुधार कानून का पालन (Effective Implementation):

भूमि सुधार कानून लागू करने के लिये समय सीमा निर्धारित की जानी चाहिये ।

2. नौकरशाही दक्षता:

सरकारी मशीनरी अथवा नौकरशाही को सक्षम होना चाहिये ।

3. रिकॉर्ड अपडेट (Records Updating):

भूमि रिकॉर्ड, खसरा, खतौनी में इन्द्राज पूर्ण रूप से तैयार होनी चाहिये ।

4. कानूनी सरलता (Simplifying Legal Methods):

भूमि संबंधी मुकदमों को जल्द निपटाने के लिये स्पेशल कोर्ट बनाये जाने चाहिये।

5. भूमि सुधार कानून सख्त बनाये जाने चाहिये और ऐसे होने चाहिये जिनको आसानी से चुनौती न दी जा सके ।

6. जन-जागरूकता:

भूमि सुधार कानूनों के बारे में ग्रामीण समाज को जानकारी देकर जागरूकता फैलाई जानी चाहिए ।

7. चकबंदी (सीलिंग):

चकबंदी द्वारा प्राप्त की गई भूमि को जल्द बंटवारा किया जाना चाहिए ।

8. ग्रामीण सोसाइटियां (Village Societies):

प्रत्येक गाँव में एक भूमि सुधार समिति की स्थापना करनी चाहिये जो भूमि सुधार कानूनों को जल्द लागू कराये ।

9. वित्तीय सहायता (Financial Assistance):

चकबंदी (Ceiling) से प्राप्त भूमि जिन गरीब लोगों को दी जाये उनको वित्तीय सहायता दी जानी चाहिये ताकि वे भूमि का सदुपयोग कर सकें । उनको तकनीकी जानकारी देने का प्रबंध भी होना जरूरी है ।